जम्मू-कश्मीर में परिवारवाद: खानदानी सीट भी न बचा पाए इल्तिजा, अब्दुल्ला परिवार शेखी मुफ्त

Nepotism in Jammu and Kashmir: Iltija could not save even the family seat, Abdullah family boasts for free
Nepotism in Jammu and Kashmir: Iltija could not save even the family seat, Abdullah family boasts for free

दूसरी ओर, पीडीपी को इन नतीजों से बड़ा झटका लगा है। पार्टी की प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने खुद को चुनावी दौड़ और मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से बाहर रखा, लेकिन उनका यह दांव काम नहीं आया। चुनाव प्रचार के दौरान महबूबा मुफ्ती ने अपने परिवार की परंपरागत सीट बिजबिहाड़ा को बचाने की पूरी कोशिश की, लेकिन नतीजे उनके पक्ष में नहीं आए। इस तरह, महबूबा मुफ्ती अपने ही गढ़ को नहीं बचा पाईं, जिससे पार्टी को और बड़ा नुकसान हुआ है।इससे साफ है कि जहां अब्दुल्ला परिवार ने अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाया है, वहीं मुफ्ती परिवार इस बार जनता के भरोसे पर खरा नहीं उतर पाया।

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महबूबा मुफ्ती ने अपनी बेटी इल्तिजा मुफ्ती के लिए चुनाव में मजबूत तैयारी की थी, लेकिन मतदाताओं ने उनकी यह योजना नाकाम कर दी। पहले रुझान से ही यह साफ हो गया था कि इल्तिजा मुकाबले में पीछे हैं, और एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि वह जीत की ओर बढ़ रही हैं। नेकां (नेशनल कॉन्फ्रेंस) के उम्मीदवार बशीर अहमद वीरी ने उन्हें 9,770 वोटों से हरा दिया। इल्तिजा को 23,529 वोट मिले, जबकि वीरी को 33,299 वोट हासिल हुए।

यह इल्तिजा का पहला चुनाव था और अपने तीखे भाषणों और बेबाक बयानों के कारण वह पहले से ही चर्चा में रहती थीं। माना जा रहा था कि चुनाव जीतने के बाद उन्हें पार्टी की कमान सौंपी जा सकती थी, लेकिन इस हार ने पीडीपी को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है।

इसी तरह अल्ताफ बुखारी भी अपने परिवार की परंपरागत सीट से हार गए। नेकां के प्रत्याशी मुश्ताक गुरु ने उन्हें 5,688 वोटों से हराया। बुखारी अपनी पार्टी के प्रमुख हैं, लेकिन उनकी पार्टी एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पाई।दूसरी ओर, सज्जाद गनी लोन अपनी पारिवारिक सीट हंदवाड़ा बचाने में सफल रहे। इस सीट पर कड़ा मुकाबला हुआ, और लोन ने केवल 662 वोटों के अंतर से जीत हासिल की।इस चुनावी नतीजे ने साफ कर दिया कि घाटी की राजनीति में पारिवारिक सीटें भी अब सुरक्षित नहीं हैं, और राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति पर फिर से सोचना पड़ेगा।

इल्तिजा जीततीं तो तीसरी पीढ़ी विधानसभा में होती 

इल्तिजा मुफ्ती से पीडीपी को काफी उम्मीदें थीं, और उन्होंने चुनाव प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी थी। उन्होंने “जोनू-जोनू” के नारों के साथ बड़ी भीड़ भी जुटाई, लेकिन यह भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो पाई। अब पार्टी को इस हार की वजह तलाशनी होगी, लेकिन जो पार्टी खुद को किंगमेकर के रूप में देख रही थी, उसका चुनाव में ऐसा प्रदर्शन होगा, यह किसी ने नहीं सोचा था।

अगर इल्तिजा जीत जातीं, तो मुफ्ती परिवार की तीसरी पीढ़ी विधानसभा में कदम रखती। इससे पहले मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती ने सत्ता का स्वाद चखा था। मुफ्ती मोहम्मद सईद दो बार और महबूबा मुफ्ती एक बार जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 1996 में पीडीपी की स्थापना की थी और इसके बाद से पार्टी ने हमेशा बेहतर प्रदर्शन किया था।

लेकिन इस बार का चुनाव पीडीपी के लिए सबसे बुरा साबित हुआ। 2002 के विधानसभा चुनाव में पीडीपी ने 16 सीटें जीती थीं, 2008 में 21 सीटें और 2014 में 28 सीटें जीतकर वह सबसे बड़ा क्षेत्रीय दल बन गई थी। इसके बाद पार्टी ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई, लेकिन तीन साल के भीतर ही दोनों पार्टियों के रास्ते अलग हो गए और सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई।

2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद भाजपा और पीडीपी के रिश्तों में और कड़वाहट आ गई, जिससे पार्टी की स्थिति और कमजोर हो गई। इस बार के चुनाव नतीजे पार्टी के लिए चिंतन और नई रणनीति बनाने की आवश्यकता को साफ संकेत देते हैं।

Nepotism in Jammu and Kashmir: Iltija could not save even the family seat, Abdullah family boasts for free

उमर की अगली पीढ़ी के रास्ते खुले

उमर अब्दुल्ला की दोनों सीटों से जीत ने न सिर्फ उनके लिए बल्कि उनके परिवार की अगली पीढ़ी के लिए भी राजनीति के रास्ते खोल दिए हैं। इस जीत से उमर के बेटों, जमीर और जहीर अब्दुल्ला के भी हौसले बुलंद हुए हैं। उन्होंने इस चुनाव में अपने पिता द्वारा अपनाई गई रणनीतियों को करीब से देखा और समझा। लोकसभा चुनाव के दौरान भी दोनों बेटे अपने पिता के प्रचार अभियानों में नजर आए थे और राजनीति के गुर सीख रहे थे।

विधानसभा चुनाव में भी दोनों काफी सक्रिय रहे। हालांकि, उमर अब्दुल्ला ने कई बार यह कहा है कि उनके बेटों की राजनीति में आने की कोई खास दिलचस्पी नहीं है। उमर का कहना है कि उनके बेटे राजनीति में नहीं जाना चाहते, लेकिन पढ़ाई से समय मिलने पर वे अपने पिता की मदद के लिए साथ आ जाते हैं।

हालांकि, उमर अब्दुल्ला के इनकार के बावजूद यह देखा जा रहा है कि उनके बेटे धीरे-धीरे राजनीति को समझने और सीखने लगे हैं, और भविष्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या वे भी अपने परिवार की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाएंगे।

इमोशनल कार्ड….टोपी खोलना कर गया काम

गांदरबल और बडगाम सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों से घिरने के बाद, उमर अब्दुल्ला ने चुनाव प्रचार के दौरान भावनात्मक अपील की, जिसका असर नतीजों में साफ नजर आया। उमर ने मतदाताओं के सामने अपनी टोपी उतारकर भावुक अंदाज में कहा था, “मेरी यह टोपी मेरी इज्जत है, मैं इसे आपके सामने रखता हूं। मेरी इज्जत का ख्याल रखिए।” उनकी इस अपील ने सोशल मीडिया पर काफी ध्यान खींचा और मतदाताओं के बीच उनकी छवि को मजबूत किया, जो अंततः उनके पक्ष में साबित हुई।

इंजीनियर रशीद, जो तिहाड़ जेल से चुनाव प्रचार करने आए थे, अपनी पारंपरिक लंगेट सीट पर अपने भाई खुर्शीद अहमद शेख को जिताने में सफल रहे। शुरुआत में खुर्शीद रुझानों में पीछे चल रहे थे, लेकिन दोपहर तक उन्होंने बढ़त हासिल कर ली और अंततः 1602 वोटों से जीत दर्ज की। इस सीट पर नेकां के इरफान सुल्तान उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी थे।

इंजीनियर रशीद की पार्टी, अवामी इत्तेहाद पार्टी, को उनके प्रचार से नई ऊर्जा मिली। बारामुला सीट से उमर अब्दुल्ला को हराकर चर्चा में आए रशीद को विपक्षी पार्टियों, पीडीपी और नेकां, ने भाजपा की बी टीम बताने की कोशिश की, लेकिन उनकी रणनीति कारगर साबित नहीं हुई।

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